भाग 2 ला संसारसार |
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१ |
(चाल शाम चुनरिया दे दे) |
श्री प्रभुपदीं शरण जाई । एकनिष्ठा करि भक्ति सदा ही |
तनमन धन दृढ अर्पुनि पायीं । प्रभुपदीं ।।ध्रु०।। |
योग याग जप तप वपुदंडन । यमनियमादिक अगणित बंधन |
भक्तिविना जगिं सुलभ न साधन । फलतें शीघ्र पाही ।। प्रभु०।।१।। |
खटपट नलगे भक्तीसाठीं । वाढे सत्वर रुजतां पोटीं |
निजभक्ताची आवड मोठी । प्रभुला नित्य राही ।।प्रभु०।। |
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२ |
(चाल धन्य जाहला तुम्ही राम पाहिला) |
धन्य जाहला मनुज मार्ग लाभला । |
जगिं मार्ग लाभला ।।ध्रु ०।। |
दृढ तर भव पाश सदा ओढीति या जीवाला । |
मायाबंधन सैल कराया भक्ति मार्ग हा भला । |
जगिं मार्ग लाभला ।।१।। |
सावध हो मनुजा आतां तोडी या भवपाशा |
मातृपदीं रत होइ तो जगिं कृतार्थ जाहला ।।जगि ० ।।२।। |
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३ |
(चाल हरि रे तुझी मुरली माधुरी) |
जिवा स्वानंदा पावसी । जिवा ०।।ध्रु०।। |
भक्ति बळें भवमोह तरुनि तूं आत्मपदाला येसि । जिवा ०।।१।। |
मी तूं एकचि भीन्नपणा जगिं मायेनें सकळासि । जिवा ०।।२।। |
श्रीजगदंबा तारक सकळा प्रत्यय हा तूं घेसि । जिवा ०।।३।। |
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४ |
(चाल आनंदाचा कंद हरि ०।।) |
आनंदाचा कंद जगिं हें जगदंबा पद आठवा।। |
मायापाशी गुंतुं नकारे भक्तिरसाला साठवा । |
संसारी या मानव काया दुर्लभ लाधे या जीवा । |
दवडुं नकारे भक्ति शिकारे सेवा हा आनंद नवा ।। |
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