भाग 1 ला भक्तिसौष्ठव |
|
|
१ |
(चाल शाम चुनरिया दे दे मारी) |
स्मर निशिदिनीं श्रीभवानी । सतत विषयरत होउनि वेडे । |
करिसि मना कां तू निजहानि । निशि ०।।ध्रु।। |
घोर भयंकर संसॄति गव्हर । कामिनी कनक कुरंग मनोहर |
देखुनि लक्षिसि तूं इंद्रियशर । कामादिक तुज नाडिति तस्कर |
यास्तव हें घे हितगुज कानीं । निशिदिनीं श्रीभवा ०।।२।। |
विषयरसाची आवड मोठी । सेउनि होसी जरि बहुकष्टी |
मानिसी वेडया त्यांतचि तुष्टी । न रुचे तुज मग हितकार गोष्टी |
विहार सुखें परि घे निजमानी । निशिदिनीं श्रीभवा ०।।३।। |
हत्पुटकमलीं कल्पुनि मंदिर । जगदंबेची मूर्ति सुंदर |
स्थापुनि तन्मय होई शंकर । भान नसे स्फूर्तीचे क्षणभर |
विसरुनि मी तूं पण हें ध्यानीं । निशिदिनीं ०।।४।। |
----------------------- |
२ |
(चाल फुलें सुवासिक हीं) |
जगदंबा माता स्मरावी । जगदंबा माता । |
उल्हास देई चित्तास नाम हें गोड तिचें गाता ।।१।। |
निशिदिनीं भजावें सोडुनि अवघीं चिंता |
नच सौख्य हाता । सहज ये सर्व सौख्य हाता । उल्हास ०।।२।। |
सर्वांस सुलभही । भक्ति तिची या लोकीं |
केवळ स्मरण संतुष्ट सदा अवलोकीं |
विनवी हें जगता । शंकर विनवी हें जगता । उल्हास ०।।३।। |
----------------------- |
३ |
(चाल राम भजन कर लेना एक दिन जाना रे भाई) |
भज मन अंबाबाई । निशिदिनिं राहि तिचे पायीं । निशि०।।१।। |
कनक कामिनी गॄह सुत वपु यश वय वैभव पाही |
विषयांचे या सुंदर जाळें घालवितें तुज मोहीं ।। निशि ०।।१।। |
चौन्याशीं फेरे फिरतां मानव तनु येई |
घडिं घडिं पळ पळ करितां सारें आयुचि निघुनी जाई । निशि०।।२।। |
गोष्ट हिताची तुला सांगतों विवेक धर काहीं |
कोण कुठिल मी जातों कोठें फेरे तरि कां घेई । निशि०।।३।। |
जीवनकलहीं पडुनि निशिदिनीं तळमळ किति होई |
माझें माझें धरुनी ओझें बुडसि कसा तूं डोहीं ।। निशि०।।४।। |
गेला क्षण तो गेला फुकटचि परतुनि नच येई |
धडी चालली तीच खरी बा यत्ने साधुनि घेई ।। निशि ०।।५।। |
सर्व जगाचा भार वागवी जगंदबा पाही |
प्रेम तिचें संपादन होता दुर्लभ काहिंच नाहीं । निशि०।।६।। |
----------------------- |
४ |
(चाल किति वानु बळ युवतीचें रसना नीरस ने) |
मन राया दृढ गुंतुनि राही जगदंबा पायीं । सदा तूं जगदंबा पायीं । |
सर्व मनोरथ पूर्ण कराया तत्पर ही आई । |
धरिं सुमती । करि भक्ति । सहज गती । तळमळ ती |
तव जाइ विलया वरिल तुला मग शांति सुखद पाही । मन ०।। |
----------------------- |
५ |
(चाल मज गमे ऐसा जनक तो) |
भज मना प्रेमें सतत बा । अंबिका ही ।। भज ०।।ध्रु।। |
चंचल तूं तर अससि निरंतर । विषय धुरंधुर भुलविति तस्करे |
तन्मय होसी त्यांतचि सत्वर । सावध हो धरि विवेक गाभा । प्रेमें०।।१।। |
सेविसि जरि वा भक्ति सुधारस । गमतिल विषय तुला मग नीरस |
सोड सोड नच होइ मोहरा । सफळ करिसि जनु तरि तव शोभा प्रेमें०।।२।। |
----------------------- |
६ |
(चाल अजुनि खुळा हा नाद) |
अझुनि तुझा हा मोह मना बा कैसा जाइना ।।ध्रु०।। |
दॄढभवपाशीं गुंतुनि जाशी । उमज कसा होइना । अझुनि ०।।१।। |
विषयासाठी तळतळसी कां । ध्यास कसा राहिना । अझुनि ०।।२।। |
आयुष्याचा क्षण हि न जावो । भक्ति विना तो सुना । अझुनि ०।।३।। |
जगदंबा पद हॄदयीं ठेवी ही तुजला प्रार्थना । अझुनि ०।।४।। |
शंकर विनवी सावध होई । करि अंबा चिंतना । अझुनि०।।५।। |
----------------------- |
७ |
(चाल म्हातारा इतुका न अवघे) |
संसारी राही मना तूं भक्ति करीं कांहीं ।।ध्रु ।। |
प्रारब्धाचे भोग न चुकता घडती ते देही |
सुखदुखाचे चक्र सदा हें वरखालीं होई ।। मना तूं ०।।१।। |
सार्थक करि या नरदेहाचें हा न पुन्हा येई ।। मना तूं०।।२।। |
नश्र्वर सारें समजुनि बारे हेंच धरी ह़ॄदयीं |
जगदंबापद अक्षय सौख्यद शंकर तें ध्यायीं । मना तूं ०।।३।। |
----------------------- |
८ |
(चाल प्रतिकुल होईल कैसा ०) |
धन्य ध्न्य या नरदेही भक्ति युक्त राही । |
ध्यास धरी अंबाचरणीं अन्य सार नाहीं। धन्य ०।। ध्रु०।। |
धन्य तेंच मुख जें अंबा नामघोष गाई |
धन्य शीर्ष जें प्रेमानें लीन तिचे पायीं |
पूजनार्थ तत्पर असती धन्य हस्त ते ही |
धन्य नेत्र बघती तिज जे पूर्ण सर्व ठायीं ।। धन्य ।। ०।।१।। |
सोडि मना विषय प्रीती त्यांत काय गोडी |
नश्र्वर हें अवघें बारे भक्ति एक जोडी |
दुस्तर या भवसिंधूच्या पार तीच धाडी |
शंकर तुज विनवी बापा बोध हाच घेई ।। धन्य ०।।२।। |
----------------------- |
९ |
(चाल गांजिता मला का नाथा) |
स्मर मना सदाशिवकांता । |
अशनीं । शयनीं गमनी । स्वमनीं निशीदिनि तिला भज चित्ता । |
या जगिं सारा मोहपसारा । बुडसि कसा तूं त्यांतचि सारा |
बघ सारा । सुविचारा । धरि मना बरी बघ सुपथा |
विनवितों तुला मी आतां । स्मर ०।।१।। |
अखंड जागे तत्पदिं लागे । विवेक मार्गे या जगिं वागे |
संसारीं । तुज तारी । हीच रे कृपा धन माता |
शंकरा दुजा नच त्राता । स्मर ०।। २।। |
----------------------- |
१० |
(चाल ठुंबरी) |
सुख मिळवाया करिसि तूं तळमळ । परिणामी सुख दूरचि केवळ । सु०।। |
जाइल विलवा देउनि हळहळ । सुख ०।।१।। |
जगंदबापदकमली अंतर । लावुनि होई निर्भय सत्वर ।। |
सुखमय होईल सर्वहि चळवळ । सुख०।। २।। |
----------------------- |
११ |
(चाल बा मना आणुनि मना) |
हे मना विविध कल्पना करूनि योजना देसि अवधाना |
कां पेटसि अभिमाना । गडयारे कां पेटसि ० । |
सोडि अज्ञाना कां विसरसि तूं निजथाना ।। |
जगिं सर्व सुखाचा कंद मातॄपद सिध्द धरी हा छंद |
मग पावसि आनंद । गडयारे मग ०।। |
शांतिसंबंध मग मिळेल रे तुज शुध्द ।।२।। |
----------------------- |
१२ |
(चाल करुं वंदन हे विश्वपालक) |
वरी जगंदबा चरण पंकजाला सेवि सौख्यजाला नित्य हें करावें । वरी ० |
भजन पूजना । नामकीर्तना । करी सतत अर्चना । |
घरी शांतता मना काम्य हें धरावें । वरी ०।।१।। |
घोर संसृती । सदा तापवी किती । करी बावरी मती । |
पुरी भ्रांतता च ती तिला कां बरावें । वरी ०।।२।। |
शंकरास्पदा । धरीं हॄदयिं या पदा। हरी सकळ आपदा । |
बरी सौख्य संपदा स्वयें उध्दरावें । वरी ०।।३।। |
----------------------- |
१३ |
(चाल कसें मन मोहुनी अमुचें तुम्ही जाता) |
मना तू अंबिका ध्यायीं सदा गायीं । मना ०।। |
चपलता ही तुझ्या ठायी नको काहीं । |
स्थिरत्वाने सदा राही तिचे पायीं । मना०।। |
नको गुंतू विषय चिंतु धरी किंतु |
सुदुर्मिळ देह हा पाही वॄथा जाई । मन ०।।२।। |
भवाब्धीला तरायाला शंकराला |
धरी श्रीभक्तिनौकाही सखा होई । मना ०।।३।। |