भाग 2 ला संसारसार |
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१ |
(चाल लंबोदर गिरिजानंदना) |
मन गुरुचरना रत जाहलें । भक्तिसुधारसि नाहलें ।। मन ०।।१।। |
गाढाज्ञान तमोलय होउनि । ज्ञानरुप जगिं राहिलें ।। मन ०।।२।। |
भक्तिरसीं दॄढ गुंतुनि जातां । मी तूं पण हें वाहिलें ।। मन ०।।३।। |
गुरुदैवत हा भेद न उरला । दोन्हीं एकचि पाहिलें ।। मन ०।।४।। |
सद्रुचरणा नाहीं तुलना । परिसाहुनि तें आगळे ।। मन ०।।५।। |
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२ |
(चाल किती कपटी अससि तूं) |
करि सद्रुरुचरण स्मरणा । नतजल भव संकटहरणा ।। ध्रु०।। |
जगंदबापदकमळीं षटपद । करवी अंतकरणा ।। करि ०।।१।। |
जगदंबा गुरु भिन्न न असती । एकचि समज तयांना ।। करि ०।।२।। |
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३ |
(चाल धाडुनी दीधले दासीसह ०) |
दूर मी झालो भवपाशाच्या जाळीं सांपडुनी । |
वैराग्यें या सद्रुरुराया भेटविलें फिरुनी । |
धन्य जगीं या जगदंबेची भक्ति खरी सुखदा । |
जीव शिवाची भेटी घडवी चढवी दिव्यपदा । |
संसारी या भक्ती एकचि जीवानंद सदा । |
भवभय हरते ज्ञान स्फुरते नुरवी मोहमदा । |
गुरुराया मी होउं कैसा उतराई अपुला । |
अर्पितसें हें मस्तक चरणीं धावे अभय मला ।। दुर ०।। |
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