भाग 1 ला भक्तिसौष्ठव |
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१ |
(चाल आन बानि सैया मिलाये) |
ध्यान मनन भजन पूजन सतत होउं अंबे सतत होउं अंबे ।। |
दर्शन तव सतत घेउं । प्रेमभरें नाम गाउं |
निशिदिनीं मन चरणकमलिं लीन होउं अंबे ।। ध्यान ।। |
शंकर तव पदिं विनदी । नित्य तुझी नवी |
भवमय मज किमपि नुरवि । नित्य तुझी भक्ति नवी |
भवभय मज किमपि नुरवि दुरित शमवि अंबे ।। ध्यान ०।। |
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२ |
(चाल भूपति खरे ते वैभवसुख सेवीति) |
जगदंब दयाधन परमेश्वरि मज पावे । झणि मज पावे |
निशिदिनीं तुझें यश शुध्द मनानें गावें ।। |
मी व्यवसायाच्या जाळीं जरि सांपडलों । जरि सांपडलों |
सुखदुख संभ्रमी क्षणोक्षणी जरि पडलों |
तव सान्निध्याने धन्य जगीं मी झालों । जगीं मी झालों |
सुखदुख सपर्पुनी तुला मनीं मी धालों। |
(चाल) जगदंब माय तूं माझी भवपथीं । भवपथीं |
प्रेमार्द्र रक्षिसी माते । संकटीं |
उतराइ होउं कैसा मी शेवटीं |
तूं माय शिशू मी सांभाळीं निजभावें । मज निजभावें |
तव निदिध्यास रसि दंग सदा मी व्हावें ।। जगदंबे०।। |
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३ |
(चाल कशि मदन मूर्ति ही पातली) |
सगुणरुप तव दावि अंबिके सगुणरुप तव दावि |
विनति हीच परिसावि । अंबिके०।। |
नयन मनोहर । भक्त कॄपाकर । अष्ट भुजाधर । सायुध सुंदर |
नेत्र पथीं मम लावि । अंबिके ०।।१।। |
दर्शन लालस । हें मम मानस । होई कॄपावश । देई अमृतरस |
हीच आस पुरवावि । अंबिके ०।।२।। |
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४ |
(चाल आन बानि सैया) |
दे दे अंबे नाम गोड जोड हीच दे दे ।। |
भवपरिहर विमल चरणकमलस्मरण दे दे ।। दे दे ०।। |
आवड तव गुणगायनिं । सत्यसुधा वसु आननि |
कठिण अरुचिकर भाषणि । वदु न कधिं विनोदें ।। दे दे ०।।१।। |
सत्संगति घडवि सदा । कुजनवास न घडो कदा |
गर्व अहंतादि मदा । हॄदयिं येउ नेदे ।। दे दे ।।२।। |
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५ |
(चाल माते सम दैवत नच अन्य भूवरी ) |
निशिदिनिं मी बंदितसे विश्र्व जननिला । |
तव सेवा सतत घडो आस ही मला । निशि०।। |
हे आई विश्वजनानि पाव तूं मला । तव लीला वर्णाया बुध्दि दे मला । |
मूढ जरी मी अबला । नमितसे तुला । निशि०।। |
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६ |
(चाल कृष्ण माझा प्राणसखा) |
नमन मनन भजन पुजन नित्य घडो तव मजला |
हीच नम्र विनति सदा जगदंबा पदकमला ।। नमन ०।। |
तळमळ यत्िकंचित ती । न वरी कधि चित्तृवत्ति |
विषय रसीं न जडों मति । मना लाभो नित्य शांति |
हाच लाभ दे मजला । नमन ०।।१।। |
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७ |
(चाल कधिं करिती लग्न माझें) |
कधि नयनीं प्रेमभावे तुज पाहूं ईश्र्वरी । |
राहुसी सर्व व्यापुनी । विश्वरुपीणी । |
सर्वसाक्षिणी । सर्व व्यवहारी ।। तुज ०।। |
मोह हा स्वस्थ राहिनी । उमज होइना । |
भेदभावना । उठे मनिं भारी ।।तुज ०।। |
हो कृपाळु तूं मजवरी । मोह आवरी । |
भक्ति दे पुरी । शंकरा तारी ।। तुज ०।। |
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८ |
(चाल आनंदकंद ऐसा हा हिंददेश माझा) |
अंबा सदा स्मरावी । दृढ भक्ति आचरावी ।। |
पुण्यांश कामिं आला । नरदेहलाभ झाला |
दवडूं नको तयाला । चित्ति विवेक ठेवी ।।१।। |
मन चंचल स्वभावें । विषयार्थ नित्य धांवे |
त्या नित्य आकळावे । तत्वार्थ बोध दावी ।।२।। |
विषयीं न दंग होई । निस्सार सर्व पाही |
जगिं एक अंबिका ही । भवसिंधु पार लावी ।।३।। |
प्रारब्ध भोग भोगूं । तव पायिं चित्त लागू । |
गुण गावूं हेंच मागूं । स्मृति शंकरा स्फुरावी ।।४।। |
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९ |
(चाल मशिं बोलु नको रे गोविंदा) |
श्रीजगदंबा पदकमळाची मज लागो आवडी ।। |
तरि सार्थक मानव देही । जन्मुनिया झालें पाही |
पशुपक्ष्यादिक कां थोडी रे जगिं असती बापुडी ।। श्री०।। |
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१० |
(चाल नागीण चपल खलजिव्हा) |
जगदीश्र्वरी अंबाबाई । तव पायीं मन राही । दृढ ऐसी मति मज देई ।। |
स्थान तुझें हें देवि भोयरे । पाहुनि चित्ति हर्ष बहुभरे |
स्फूर्ति मम मानसिं होई । तव पायीं ०।। |
दर्शन घ्यावे नित्य तियेचें । नाम वदावें प्रेमळ वाचे |
देहाचें सार्थक होई । तव पायीं ०।। |
अल्पमती मी इंदूदासी । लीन असे गे तव चरणासी |
गुणगाया मति मज देई ।। तव पायीं०।। |
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११ |
(चाल म्हातारा इतुका) |
जगदंबा पायीं मना तूं लीन सदा होई । |
तळमळसी तूं नाना विषयी बुडसी भवडोहीं |
यांतुनि तरण्या मार्ग दुजा नच भक्तीविण कांही ।। मना०।। |
नश्र्वर जगतीं सौख्य दिसे जें क्षणिकचि तें पाहीं |
माया सोडी भक्ती जोडी चित्तीं लवलाही ।।मना०।। |
या चरणाचा आश्रय करितां सर्व सुखद होई |
चरणीं राही अनुभव पाहीं । इंदू गुण गायीं ।। मना०।। |
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१२ |
(चाल कृष्ण मुरारी विनति करत) |
नित्य निरीशरमणिचरणि रत होउ । नित्य ० |
हॄदयिं स्मरण वदनि भजन नयनि ध्यान |
मस्तक पायि करूनि सदाहि |
शमवुं दुरित पुनित होउ गुण गावुं ।। नित्य०।। |
घडवि सुसंग न घडो कुसंग नसो दुखयोग |
दे वर आई विनति हि पायिं |
भव सुखमय अभय होउ राहू ।। नित्य०।। |